चार का गजर / अज्ञेय
चार का गजर कहीं खड़का-
रात में उचट गयी नींद मेरी सहसा :
छोटे-छोटे, बिखरे से, शुभ्र अभ्र-खंडों बीच-
द्रुत-पद भागा जा रहा है चाँद :
जगा हूँ मैं एक स्वप्न देखता :
जाने कौन स्थान है, मैं खड़ा एक मंच पर एक हाथ ऊँचा किये।
भाषण के बीच में
रुक कर नीचे देखता हूँ, जुटी भीड़ को
और फिर निज उठे कर को
जिस में मैं एक चित्र थामे हूँ,
और फिर मुग्ध-नेत्र चित्र को ही देखता-
निर्निमेष लोचन-युगल जिस में कि युवा कवि के
देखे जा रहे हैं, एक छायामय किन्तु दीप्तिमान नारी-मुख को :
आकृति नहीं है स्पष्ट, किन्तु मानो फलक को भेदती-सी
दृष्टि उस अप्सरा की आँखों की
पैठी जा रही है कवि-युवक के उर में।
मेरी भाव-धारा फिर वेष्टित हो शब्द से
बह चलती है जन-संकुल की ओर (मानो निम्नगा
हो के नभगंगा बनी धौत-पाप भागीरथ-तारिणी)
कहता हूँ, देखो यहाँ चित्रण किया है चित्रकार ने
एकनिष्ठ; ध्येय-रत, तम-शील साधना का :
दुर्निवार चला जा रहा है कवि-युवा निज पथ पर
उर धारे पुंजीकृत कल्पना की स्वप्न-मूर्त प्रतिमा।
एक सीमा होती है, उलाँघ कर जिस को
बनता विसर्जन है बिम्ब उपलब्धि का :
देखो, कैसे तन्मय हुआ है वह, आत्मसात्!
नीचे कहीं, संकुल के बीच से
आया एक स्वर, तीखा, व्यंग्य-युक्त, मुझे ललकारता :
तेरे पास भी तो प्रतिकृति है-छाया-रूप तेरे निज मोह की यवनिका!
मानो मेरा रोम-रोक पुलका प्रहर्ष से,
मैं ने एकाएक चीन्ह लिया उस फलक को बेधती-सी
छायाकृति-बीच जड़ी अपलक आँखों को-
तेरी थीं वे आँखें, आद्र्र, दीप्ति-युक्त,
मानो किसी दूरतम तारे की चमक हो।
और फिर गूँज गये मेरे प्राण-गह्वर के सूने में
वह प्रश्न-तेरे पास भी तो बस चित्र है-
प्रतिकृति, छायामय-
खुल गया चेतना का द्वार तभी,
उठ गयी मेरे मोहन-स्वप्न की यवनिका,
भिंची मेरी मुट्ठियाँ थीं, उन की पकड़ किन्तु बाँधे एक शून्यता के श्वास को-
छोटे-छोटे, बिखरे-से, शुभ्र बादलों को पार करता-
मानो कोई तप-क्षीण कापालिक साध्य-साधना की बल-बुझी झरी,
बची-खुची राख पर धीमे पैर रखता-
नीरव, चपलतर गति से
चाँद भागा जा रहा है द्रुतपद-
जागा हूँ मैं स्वप्न से कि
चार का गजर कहीं खड़का!
दिल्ली, 11 जुलाई, 1941