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चार दिन की चाँदनी / रेशमा हिंगोरानी

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कोई मुद्दत के बाद
दिल के तार
छेड़ गया!

फिर वही नग़मे फ़ज़ा<ref>वातावरण</ref> में हैं,
गुनगुनाने लगे,

मैं उड़ रही,
ज़मीन-ओ-आसमाँ के बीच कहीं,

थिरक रहे हैं पाँव,
बोलने लगे घुँघरू!

न कोई फ़िक्र,
और न कोई ग़म की परछाईं,

एक मस्ती का है आलम<ref>हालत</ref>,
और इक ख़याल तेरा!

अब कोई ख़ौफ नहीं,
चाँदनी अगर मेरी,

है चार दिन की,
तो आ जाए रात अँधियारी...

मैं हूँ वाक़िफ
सियाह<ref>अँधेरी / काली</ref> रात की
हकीक़त से,

उम्र उसकी तो,
चार दिन भी नहीं होती है!

(चार दिन की चाँदनी से मक्सद है कोई भी चीज़ जो बहुत कम देर रहे)
29.08.96

शब्दार्थ
<references/>