चारपाई / रामदरश मिश्र
जैसे एक बड़ी दुनिया के बीच अपना घर होता है
वैसे ही घर की तमाम चीज़ों के बीच चारपाई है
कहाँ-कहाँ से थके-हारे लोग घर पहुँचते हैं
तो उनमें एक आश्वस्ति व्याप जाती है
लगता है जैसे नदी में नहाकर निकले हों
आदमी घर की तमाम चीज़ों के बीच होता है
कभी इस चीज़ से बात करता है, कभी उस चीज़ से
लेकिन घर-बाहर की यात्रा का सुखद समापन तो
चारपाई पर ही होता है
दिन भर की थकान से लदा हुआ तन
अपने को डाल देता है चारपाई पर
अंग-अंग में चैन उतरने लगता है
थकी हुई साँसें सहज होने लगती हैं
रात और चारपाई तो जैसे पर्याय हों
रात होते ही चारपाई पुकारने लगती है
उस पर पड़ते ही नींद ले लेती है अपने अंक में
आँखों में सपने तैरने लगते हैं
न जाने कहाँ-कहाँ से दृश्य आने लगते हैं
चारपाई उन सबकी साक्षी है
कोई रचनाकार चारपाई पर पड़ा-पड़ा
अनेक विचारों और भावों के प्रवाह में बहता है
तब वह प्यार से कहती है
‘बहुत रात गई, अब सो जाओ’
वासंती वय-ऋतु के राग से सिक्त तन-मन
उस पर आते हैं तब वह खुशबू में नहा उठती है
बच्चों की मासूम किलकारियों की गूँज
उसके अंग-अंग में समाई हुई है
प्रसन्न तन-मन के साथ
उसके प्रसन्न होने का एक लंबा सिलसिला है
लेकिन उसकी रगों में
दुखों के स्वर भी कम नहीं हैं
बीमार तन जब महीनों
उसके ऊपर लेटे-लेटे कराहता है, रोता है
तब वह भी बेचैन हो उठती है
चाहती है माँ की गोद की तरह
उसे प्यार दे और उसके दुखों को अपने में समेट ले
अरसा बाद जब वह तन प्रसन्न होता है
तब लगता है वह भी हँस रही है
लेकिन जब उसके ऊपर सोया तन अंतिम साँस लेता है
और उसके ऊपर छोड़ जाता है एक सन्नाटा
तब उसे कैसा लगता है, कहना कठिन है।
-2.9.2014