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चारा न था / प्रभात

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नौ जनवरी की जिस रात
राजस्थान कोहरे की अँदरूनी तहों के फ़ाहों में
कहीं न कहीं छुप जाने की कोशिश में जुटा था
मैंने फ़ोन किया रात के ग्यारह पाँच पर
जब लोग अत्यधिक सिकुड़ और अकड़ कर
सोने में विलीन होने की कोशिश में थे
उस लड़की ने फोन पर ही बहुत देर बाद
पूरी बात जब ख़त्म हो रही थी मुझे बताया
कि वह कपड़े धो रही थी
और कहा— ‘कल आप आओगे न ?’

यह मुझसे कहते उसने न जाने किससे कहा
क्योंकि मेरा और उसका कोई खास लेना-देना नहीं था
और जब मैंने कहा — ‘हाँ’
तो उसने न जाने किसे सुना और गरमाईश पाई

मगर मैंने सोचा कि मैं ईसा मसीह होऊँ अगर इस घड़ी
रात के ग्यारह बजकर आठ मिनट पर
तो उसके लिए क्या कर सकता हूँ ?

क्या उसके कपड़े निचोड़ सकता हूँ ?
क्या सूरज को इतना उगा सकता हूँ कि
उसके दफ़्तर पहुँचने से पहले
उसके कपड़े सूख जाएँ

मैं उसके लिए कुछ करने की इच्छा ही रख सकता था
और इच्छा के इस शव के साथ सो जाने के सिवा
मेरे पास और कोई
चारा न था