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चाह / बीरेन्द्र कुमार महतो
Kavita Kosh से
अपना गांव भी अब तो
नहीं लगता अपना,
उजाड़ और विरान
हर तरफ
सिर्फ बंजर ही बंजर
पड़े हैं सारे के सारे खेत,
बूढ़ी दादी भी अब तो
नहीं सिझाती धान
हुआ करती थी कभी वो
सुनी खलिहानों की शान,
खाली-ढंगढंग पडें हैं
सारे के सारे बासन-बर्तन
चुल्हें पर भी
नहीं दिखते ताव
पातुर विहिन हो गया अब तो
सारा का सारा गांव बेजान,
चरॅंई चुरगुनों की चहचहाहट
भगजोगनियों की जगमगाती बती
नहीं दिखाई देता अब तो
बूढ़ी दादी की हाथों में
बॉंस की प्यारी लाठी,
नहीं देता सुनाई अब तो
फिकड़ों की आवाज
बूढ़ी दादी की
बेजान काया-सवांग में
बची है अब भी
पथराई टिमटिमाती खुली आँखों में
जीने की चाह... जीने की चाह...!