चिट्ठी / लोकमित्र गौतम
एनकाउण्टर स्पेशलिस्ट कहे जाने वाले
उस पुलिस सब-इंस्पेक्टर को
अब भी यक़ीन नहीं हो रहा
कि मारे गए आतंकवादी की कसकर बन्द मुट्ठी से
मिला पुर्जा, उसके महबूब की चिट्ठी थी
उसकी आख़िरी निशानी
जो उसने उसे आख़िरी बार बिछुड़ने से पहले दी थी
न कि किसी आतंकी योजना का ब्लू-प्रिण्ट
जैसा कि उसके अफ़सर ने कान में फुसफुसाकर बताया था
पुलिस अफ़सर के जानिब तो भला
कागज के एक टुकड़े के लिए भी भला कोई अपनी जान देता है ?
नामुमकिन !
ऐसा हो ही नहीं सकता !!
काश ! अघाई उम्र का वह अफसर कभी समझ पाता
महज लिखे हुए काग़ज़ का टुकड़ा
या निवेश-पत्र भर नहीं होती चिट्ठी
कि वक़्त और मौसम के मिजाज से
उसकी क़ीमत तय हो
कि मौक़ों और महत्व के मुताबिक
आँकी जाए उसकी ताक़त
काश ! सिर्फ़ आदेश सुनने और निर्देश पालन करने वाला
वह थुलथुल पुलिस आफ़िसर
जो खाली समय में अपनी जूनियर को
अश्लील एस०एम०एस० भेजता रहता है
कभी समझ पाता कि चिट्ठी के कितने रंग होते हैं ?
उसकी कितनी ख़ुशबुएँ होती हैं
कि कैसे बदल जाते हैं
अलग-अलग मौक़ों में चिट्ठी के मायने
सरहद में खड़े सिपाही के लिए चिट्ठी
महज हालचाल जानने का जरिया नहीं होती
देश की आन-बान के लिए अपनी जान से खेलने वाले
सिपाहियों के लिए महबूब का मेंहदी लगा हाथ होती है चिट्ठी
निराशा से घिरे क्रान्तिकारी के लिए उसमें
हौसला भर देने वाला विचार होती है चिट्ठी
चूमकर चिट्ठी वह ऐलान कर देता है
‘शून्य थेके शुरु’
साथी! चलो फिर शुरू करते हैं सफ़र शून्य से
सब-इंस्पेक्टर से झूठ कहता है उसका ऑफ़िसर
कि कोई मुट्ठी में दबी मामूली चिट्ठी के लिए
जान नहीं दे सकता
उसे पता नहीं
प्रेमियों के लिए क्या मायने रखती है चिट्ठी ?
उसके लिए चन्द अलफ़ाजों की ये दुनिया, समूचा कायनात होती है
जो उन्हें जीने की हसरत देती है तो मौक़ा पड़ने पर
मरने का जज़्बा भी देती है
क्योंकि चिट्ठी महज काग़ज़ का टुकड़ा-भर नहीं होती...