चिड़ियां / तरुण
खेल रहीं चिड़ियाँ चंचल!
अरुणोदय की फैल रही है धूप सुनहली-सी कोमल!
खेल रहीं चिड़ियाँ चंचल!
देख नीलिमा नभमण्डल की,
वायु सुगन्धित हल्की-हल्की,
दूब मोतियों वाली कोमल,
और लालिमा अरुणाचल की,
मन में नव उल्लास गया भर, चहक रहीं सब पुलकाकुल!
खेल रहीं चिड़ियाँ चंचल!
कितना कंपन! कितनी थिरकन!
-है उल्लास, कि जिसका अंत न!
है संगीत-भरा स्वर इनका,
ये प्रति-पल जाग्रत, चिर-चेतन;
खुली धूप में, खुले पवन में, मुक्त बितातीं जीवन-पल!
खेल रहीं चिड़ियाँ चंचल!
कोई नीचे दाना चुगती,
चोंच गड़ाती, भूमि कुतरती,
और परस्पर मुख-चुम्बन कर,
तन में पुलक-प्रकम्पन भरतीं,
रोमिल कोमल अंगों में निज चोंच गुदाती स्नेह-विकल!
खेल रहीं चिड़ियाँ चंचल!
देखो करती चीं-चीं-चीं च्वट्-
लगा रही हैं सब मिलकर रट,
अर्र्र् यह क्या हुआ अचानक,
पलक मारने में लो झटपट-
फुरफुर् फुर्र् फुर्रर् कर नभ में दल की दल उड़ गईं सकल!
खेल रहीं चिड़ियाँ चंचल!
चाहे काँटों की डाली हो,
या शाखा कलियों वाली हो,
शिशिर हो कि हो भोर वसन्ती,
मरुथल हो या हरियाली हो,
इनके कंठों से लहरता वही मुक्ति का स्वर अविरल!
खेल रहीं चिड़ियाँ चंचल!
दिव्य चेतना का पा लघु कण,
हुआ सफल रे इनका जीवन;
पाया जीवन-अमृत इन्होंने,
थिरक रहा तन, छलक रहा मन,
है स्वतन्त्र तन, ईश्वरमय मन, कंठ मधुरतम, चरण चपल!
खेल रहीं चिड़ियाँ चंचल!
इनका लड़ना बस दो पल का,
सहज हृदय है भोला-हल्का,
मानव से क्या साम्य, अरे-
इन प्रेममयी चिड़ियों के दल का!
नरक किया उसने भू-सुरपुर, स्वर्ग इन्होंने यह जंगल!
खेल रहीं चिड़ियाँ चंचल!