भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चित्रसुन्दरी / दिनेश्वर प्रसाद
Kavita Kosh से
सौ वसन्त पहले खड़ी थी तुम
नाटक मण्डली के साथ छवि खिंचवाने
पीछे कसमसाता-कसमसाता सागर
अधीर-असम्भव लालसा से
जलती बेचैन लहरें
और तुम्हारी मुस्कान की आँच में
नीला आकाश
पिघलता जा रहा था...
एक स्पन्दित प्रतीक्षा
कि अब... कि अब...
जो तुम्हारे उत्फुल्ल यौवन से
बाँसुरी जैसी बज रही थी
सौ वसन्त बीत गए हैं
उनकी ओसीली हरियाली से
धुले तुम्हारे दूधिया मुखड़े से
फूटती मुस्कान
सीधे मुझे सम्बोधित है
सपनों के भँवर जगाने वाली
तुम्हारी आँखें
सीधे मुझे देखती हैं
और समय की धरती डूब जाती है
और मैं नहाने लगता हूँ
सौ-सौ वसन्तों के फूलों से ढँकी
जलती नदी में
००
जब कोलाहल था
तब दिया नहीं
दाता ! क्या दोगे
सन्नाटे को ?
(10 दिसम्बर 1988, रात्रि : शनिवार)