भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चिन्ता के अँगारे / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
उर-अम्बर में झिलमिल करते चिन्ता के अंगारे
भींगा-भींगा-सा लगता है चाँद शीत के मारे
झूम-झमक जाते थे कल तक-
तो भावों के बादल
अन्तर के आँगन में बजती-
ही रहती थी पायल
कुछ ऐसा ही भाग्य विरासत-
में सौंपा विधना ने
सदा सँजोये रखना चाहे-
आँखों में गंगाजल
सदा सींचना चाहे दुख की बेल नयन-झारी से
रीते अधरों से राधा को कैसे श्याम पुकारे
खग-कुल-कलरव, नही-
नन्हीं पैंजनियों की रूनझुन
जीवन-वीणा से न झरेगा-
क्या अब अलि का गुजंन
क्या सुनाई देगी वंशी-टेर-
कुंज-गलियों में
रास-हास से मुखर न होगा-
क्या जीवन का मधुवन
मीरा बनी भावना थिरके सम्मुख बनवारी के
नव-रस की प्यासी मधूलिका आनन-चन्द्र निहारे