भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चिरई - चुरूँग / चन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे ख़ून , मेरे पसीन , मेरे आँसुओं
से सनी हुई गेहूँ-धान की
लहराती हुई बालियों को,
बालियों के नरम-नरम
दूधदार दानों को
बड़े चाव से खाती हैं प्यारी-दुलारी ,
देसी-परदेसी चिरईंयाँ

मेरी मेहनत की धरती से
जितनी भी
उगती-खिलती
फलती-फूलती
किलकती हैं
षड्ऋतुओं में
फ़सलें

इन सारी फ़सलों में
मिहनत-मजदूरी
की है इन्होंने भी

इन सारी फ़सलों में
चोंच-चोंच भर
चिरई - चुरूँगों का भी तो
हिस्सा है

इसलिए तो ये खाते हैं उतना ही
एक रोटी पकने में जितने गेहूँ के दाने लगते हैं
एक कटोरी भात पकने में जितने धान के दाने लगते हैं

और एक बीघा खेती करने में कितना ख़ून
कितना पसीना बहाना पड़ता है
कितने दुख
कितने सुख
कितने सैलाब सहनकर चुपचाप
घुटना पड़ता हैं

और कितनी आत्मा और कितने प्यारे प्राण लगते हैं
यह सब समझते हैं
हम मेहनतकश भी

तब हज़ारों बीघा खेतों में कितने किसान
कितने श्रमिक
कितने मेहनतकश
कितने मज़दूर लगते होंगे
खेतों के सुन्दर वेदियों पर
उनका कितना पसीना
कितना ख़ून बहता होगा
कितना हाड़-तोड़ खटते होंगे
यह तो यहाँ के वे मूस जानते होंगे
जो गन्ने के मन्द-मन्द-मुस्कुराते हुए खेतों
में छुप-छुपकर
चिभते हैं मधुर ऊँख ही..

यहाँ की गिलहरियाँ जानती होंगी
गन्ने के खेतों में लुका-छुपी खेलती हुई
गन्ने के रस का माधुर्य, मनोहर,आकर्षक छाता लगाने वाली मधुमक्खियाँ जानती होंगी
बन्दर और हाथी जानते होंगे

ऊँखों की गेंड़ा खानेवाले हज़ारों जोड़ी बैल जानते होंगे
गैया बछिया जानती होंगी
जानते होंगे कुकुर सियार बिलार जैसे बहुत जनावर

इसलिए तो ये खाते हैं
कर्म के फल की तरह
और पेड़ की तरह
फिर दे दे देते हैं

खाते हैं ये
इसलिए
कि अपने हड्डियों से ख़ून-पसीना
चुआँते हैं
और खटते हैं रात-दिन
हो चिलकती धूप के दिन चाहें
सर्दी की अँजोरिया रात

इसलिए तो ये खाते हैं
प्रेम-सद्भाव से

तुम नहीं खटते क्या ?
दूर-दूर खेतों में ?

तुम नहीं चढ़ाते क्या
फूल और प्रसाद की तरह
महान तीर्थ-स्थल जैसे असँख्य खेतों के असँख्य अमर चरण-चौखटों पर
जिगर का लहू-पसीना ?

फिर तुम नहीं खाते क्या ?
चोंच भर ?
कटोरी भर ?

तुम खाते हो
तुम खाते हो
हाँ ,
तुम खाते हो
खाते हो तुम !

पूरी की पूरी खेतियाँ !
पूरे के पूरे गोदाम !