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चिरकाल से होती आई है शुमार मेरी / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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चिरकाल से होती आई है शुमार मेरी
बेकारों के दल में।
वाहियात लिखना है,
पढ़ना है फालतू,
दिन कटते हैं व्यर्थ मिथ्या छल में।
उस गुणी को
आनन्द में काट देता मेरा दीर्घ समय जो,
‘आओ आओ’ कह के बड़े आदर से
बिठाता मैं बैठक में;
डरता हूं ‘काम के आदमी’ से,
कब्जी में घड़ी बाँध
कडाई से बाँध लेता समय को;
फजूल खर्ची के लिए
बाकी कुछ रखता नहीं हाथ में,
मुझ जैसे आलसी लज्जा ही पाते हैं उनके साक्षात् में।
समय नष्ट करने में
 हम बड़े उस्ताद है,
काम का नुकसान करने बिछाते जो जाल हैं,
उनकी करतूत पर हम देते सदा दाद हैं।
मेरा शरीर तो काम में व्यस्तों को
दूर से ही दण्डवत करके भगाता है
शक्ति नहीं अपने मंे, पराई देह पर महसूल लगाता है।
सरोज भइया को देखता हूं,
जो भी कहो, जो भी करो,
सब में वह राजी रहता है;
काम काज कुछ भी नहीं,
समय के भण्डार में लगा नहीं ताला कहीं,
मुझ जैसे अक्षम की क्षण-क्षण की माँगों को
तुरत पूरी करना ही कर्तव्य अपना समझता है;
उसके पास इतना है उदार अवसर,
अकृपण हो बिना थके दे सकता है निरन्तर।
आधी रात को स्तिमित आलोक में
सहसा जब देखता हूं मूर्ति उसकी तो
सोचता हूं मन ही मन
बिठाकर आश्वास की नाव पर
किसने दूत भेजा यह,
दुर्योग का दुःस्वप्न जिसने दिया तोड़ ?
दाय हीन मनुष्य का यह अचिन्त्य आविर्भाव है
दया-हीन अदृष्ट की बन्दिशला में बहुमूल्य यह लाभ है।

‘उदयन’
प्रभात: 9 जनवरी, 1941