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चिर्रा चिर्री चीं-चीं-चीं / जयप्रकाश त्रिपाठी

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छप्पर-छप्पर लगे सुलगने, आगबबूला दोपहरी।
लपटी-कपटी राजपाट के मौसम-सी अन्धी-बहरी।

भोरहरे तक चिरई-चुनमुन चिर्रा-चिर्री, चीं-चीं-चीं...
याकि चुनाव चिन-चिन चटके गुर्रा-गुर्री, हीं-हीं-हीं...
साँसें लगीं खींचने फिर से कनबतियाँ गहरी-गहरी।

पत्ता-पत्ता तपे, छाँव के भी तलवे छाले-छाले,
कौन पसीना पोंछे, मन किससे सारा दुख कह डाले,
टस-से-मस का नाम न ले जो विपदा चौखट पर ठहरी।
 
थके-थके सीवान, मूर्च्छित फ़सलों का दाना-दाना,
उकड़ूँ-उकड़ूँ खेत, मेढ़ तक खलिहानों को दें ताना,
ताने पड़े मसहरी अपनी मच्छर-मच्छर सब शहरी।

जाड़ा सूरज-सूरज उनकी, बर्फ़-बर्फ़ गर्मियाँ रहें,
अपनी चादर चिन्दी-चिन्दी, 'इँहा' रहें या 'उहाँ' रहें,
भाँग पिलाकर लोकतन्त्र को टुन्न हुए बम-बम लहरी।