चीख / अशोक वाजपेयी
यह बिल्कुल मुमकिन था
कि अपने को बिना जोखिम में डाले
कर दूँ इनकार
उस चीख से,
जैसे आम हड़ताल के दिनों में
मरघिल्ला बाबू, छुट्टी की दरख्वास्त भेजकर
बना रहना चाहता है वफादार
दोनों तरफ।
अँधेरा था
इमारत की उस काई-भीगी दीवार पर,
कुछ ठंडक-सी भी
और मेरी चाहत की कोशिश से सटकर
खड़ी थी वह बेवकूफ-सी लड़की।
थोड़ा दमखम होता
तो मैं शायद चाट सकता था
अपनी कुत्ता-जीभ से
उसका गदगदा पका हुआ शरीर।
आखिर मैं अफसर था,
मेरी जेब में रुपिया था, चालाकी थी,
संविधान की गारंटी थी।
मेरी बीवी इकलौते बेटे के साथ बाहर थी
और मेरे चपरासी हड़ताल पर।
चाहत और हिम्मत के बीच
थोड़ा-सा शर्मनाक फासला था
बल्कि एक लिजलिजी-सी दरार
जिसमें वह लड़की गप्प से बिला गई।
अब सवाल यह है कि चीख का क्या हुआ?
क्या होना था? वह सदियों पहले
आदमी की थी
जिसे अपमानित होने पर
चीखने की फुरसत थी।