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चीख़ / अरविन्द चतुर्वेद

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कहता हूँ गानेवाली बुलबुल
तभी एक पिंजरा लिए
बढ़ आते हैं हाथ
मैं कहता हूँ- कोई भी एक चिड़ि९या
इतने में ही
वे संभाल लेते हैं गुलेल
एक गहरी चीख़
बनकर
रह जाती है
कविता
शान्ति के नाम पर
पता नहीं वे किसके विरुद्ध
अभी तक लड़े जा रहे हैं
एक युद्ध श्रंखला!