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चीर नदी के चिन्ता / अशोक शुभदर्शी
Kavita Kosh से
हे भगवान !
की छल करी देनें छै
ई दुनिया ने
हमरोॅ सहेली सब केॅ
नोची लेनें छै
खून-माँस सब
ऊ सब देखै में लागै छै
कतनां खराब
कतनां वीभत्स
जेकरेॅ किनारा पर आवै छेलै लोग
सुबह-शाम, भोरे-भोर
हवा खाय लेॅ
टहलै लेॅ, घूमै लेॅ
आबेॅ की देखै लेॅ ऐतै लोग
कंकाल बनाय केॅ छोड़ी देनें छै
हमरा डर लागै छै
आपनेॅ ई सुन्दर बदन देखी केॅ
ई सुनहरा बदन देखी केॅ
पता नै
कबेॅ तक जान बख्सतै हमरा
ई दुश्टें सिनी।