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चील / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
कोई मयूरपंखी सपना नहीं है इस समय
जो खींचकर ले जाता मुझे आगे
पीछे कुछ चट्टानें हैं दुःख की जिन पर
थोड़ी देर को पीठ टिकाकर मैं
सीधी कर सकता हूँ अपनी रीढ़।
प्यास से थोड़ा बाहर दिखाई दे रहा है एक कुआँ
मैं लोटे के लिए अपनी गठरी में हाथ डालता हूँ
ढनढनाकर बजरी पर लुढ़कती
दूर चली जाती है आत्मा
वहाँ नहीं है कोई झाड़ी
न मेरे तलवे किसी पक्षी जितने उजले,
इस सांत्वना के नज़दीक एक नींद है जिस पर
बहुत थोड़ा भरोसा, अब भी बचा हुआ है मेरा।
बहुत ऊपर आकाश में घूमती रहती है एक चील।