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चुप-चुप रहना सखी / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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चुप-चुप रहना सखी, चुप-चुप हीरहना,
काँटा वो प्रेम का-
छाती में बींध उसे रखना
तुमको है मिली सुधा, मिटी नहीं अब तक
उसकी क्षुधा, भर दोगी उसमें क्या विष !
जलन अरे जिसकी सब बेधेगी मर्म,
उसे खींच बाहर क्यों रखना !!
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल