भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चुप्पियाँ बाक़ी न रहें / महाभूत चन्दन राय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ललकारो और उन्हें तब तक ललकारो
कि जब तक बाक़ी है तुम्हारे भीतर रक्त का एक-एक कतरा
चीख़ो और तब तक उनके बहरे हो चले कानों पर चीख़ो
कि जब तक तुम्हारे भीतर बची है प्रतिबद्धता

अकड़ो और तब तक अकड़ो
जब तक तुम्हारे भीतर बचे सच के पास अकड़ने का साहस हो
पूछो और उनसे तब तक पूछो
जब तक उनके कण्ठ भन्नाकर तुम्हारे हिस्से का प्रतिउत्तर न उगल दें

उन्हें बोलकर बताओ कि तुम्हे भी बोलना आता है
और उनसे बेहतर बोलना आता है
तुम्हारे पास भी है दो गज लम्बी ज़ुबान
जो उनके शिथिल पड़ चुके जबड़ों की भाँति
तुम्हारे कण्ठों से महज झूलती नहीं है
उसमे बची है अभी प्रतिवाद की हड्डी
और असम्भव है इसका प्रतिनिषेध

सूर्यास्त होगा और यक़ीनन होगा
अँधेरा भी घिरेगा ज़रूर
पर जब तक उनके मगरूर दरवाज़े
ख़ुद-ब-ख़ुद भरभरा कर गिर न पड़े
जब तक एक नए सूर्योदय का विपक्ष खड़ा न कर सको
चुप्पियाँ बाक़ी न रहें...