भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चुरायो बरजोरी चित मोर / स्वामी सनातनदेव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग देशी, तीन ताल 23.7.1974

चुरायो बरजोरी चित मोर।
ऐसो ढीठ देत फिर नाहीं, सुनत न नैंकु निहोर।
लेत चित्त फिर पास न झाँकत, विनती सुनत न मोर।
तरसि-तरसि मैं मरहुँ विरह में, तरस न करत कठोर॥1॥
परी फेर में वाके सजनी! वह लंगर-सिरमौर।
आग लगाय तमासो देखे, तकै न वाकी ओर॥2॥
कापै जाय पुकार करों अब, अपनो दिखत न और।
जैसा है अपनो है वह ही, वा लगि मेरी दौर॥3॥
आ चितचोर चोर मोहँकों, क्यों तरसावै और।
मैं तेरी ह्वै रहों सदाकों, रहै न दूजी ठौर॥4॥
तेरी तो मैं सदा-सदा हों, काहे न लेत अँकोर।
मैं न रहूँ बस रहे एक तू-यही लालसा मोर।