चूल्हा / गोरख प्रसाद मस्ताना
मैं चूल्हा हूँ
सदियों से जल रहा हूँ
झुलस रहा हूँ
लेकिन 'उफ़'
मेरे शब्दकोश में नहीं है
सूरज भी मेरी बराबरी नहीं कर सकता
क्योंकि
वह केवल दिन में जलता है
और मैं दिन रात
झेलता हूँ आघात
भयानक आग का
जलना मेरा सौभाग्य
मजबूर के लए दुःख भी तो
सौभाग्य है
मैं एक सच्चा समाजवादी हूँ
जलत हूँ एक सामान
क्या आमिर क्या गरीब
सबके लिए कुर्बान
जलता है मेरा तन, जले
मुझपर सेंकी गई
रोटियां
किसी की उदराग्नि बुझाती है
यही क्या कम है संतोष
सुख
अपने को जला कर दुसरे को ठंढाना
तृप्त करना
मुझ पर भुने हुए भुट्टे किसी भी भूख मिटा दे
यही तो मेरी सार्थकता है
हैं
कभी कभी मुझे होता है दुःख
जब कोई अचानक
मुझ पर पानी डाल देता है
मानो मेरे सपने को कर देता है चूर
आग पर पानी बनता है फोड़ा
फफोला जैसे पीठ पर पड़े कोड़े हों
लेकिन किसे फुर्सत है इसे पढने की
जलना तो मेरी नियति है
आखिर मैं
चूल्हा हूँ।