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चेहरे का चेचक / अमरेन्द्र

ठोकर खाए रोजगार को जहाँ जवानी दर-दर
कैसे देश दिखेगा बोलो, तरुण दीप्ति से दप-दप
भूख-प्यास की डाकिन-किच्चिन की जिह्नाएँ लप-लप
क्या भविष्य है उन महलों का, जो जड़ से ही जर्जर ?

वृक्ष खड़े होने से पहले बाराहा ग्रस लेता
शिक्षा के क्या पत्रा-पुष्प टहनी से सटे रहेंगे
जब तक ग्रहण रहेगा ग्रह के हिस्से कटे रहेंगे
यहाँ ब्याह की रात नाग ही बाला को डस लेता ।

सीने पर पर्वत का बोझा, खाई-सा मन सूना
घना अंधेरा चेहरे पर है, पथ पर लगे अकेला
हर पल ऐसा ही कटता है; ज्यों, कपार पर ढेला
ऐसे में फिर ‘क्या करते हो ?’ प्रश्न लगे ज्यों, चूना

हाथों को श्रम मिले नहीं, यह चेहरे पर चेचक है
कुछ अनहोनी ना हो जाए; इसमें भी क्या शक है।