भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चैत का गीत / अजित कुमार
Kavita Kosh से
चैत में कटी है जौ ।
मेहनत ने किया काम,
बिकी फ़सल, लगे दाम्।
जुटे खरीदार, साहूकार
मिले रुपये सौ ।
नन्हे जेठुअई धान्।
खड़े हुए सीना तान
परती खेत ‘अबके असाढ में’
जुतेंगे औ’ ।
घटती है, बढ़ती है
मुड़ती है, चढ़ती है-
दीवट, ओसारे में, की
जागती-मचलती लौ ।
फूस का बड़ा छप्पर
खाली है, सोयेंगे सब बाहर;
बछिया से तनिक परे
सहन में बँधी है गौ ।
मुखिया, सरपच, लोग ।-
जुटा नहर पार जोग :
चंग और डफ बाजे
घुँघरू में आई रौ ।
नकलें औ’ राग-रंग
देख सभी हुए दंग
आयी जब सुध , जाना
पूरब में फटती पौ ।