चोंचो का खेल / तरुण
तामचीनी की एक बड़ी तश्तरी रखी है
खुले आकाश के नीचे
बड़ी गोल मेज पर।
उसके तीन ओर तीन ऊँचे स्टूल हैं
जिन पर खड़ी हैं-
लम्बी-लम्बी, सख्त, पिन जैसी तीखी चोंच वाली
दूध-जैसी सारसें।
क्रम-क्रम से, या बिना क्रम के भी,
चोंचें-
सफाई से तश्तरी में आ-आ कर लगती हैं, टकराती हैं-
पर बिना किसी टखटख के।
तश्तरी में पुरानी रजाई के गुद्देदार रूहड़ जैसे-
चोंचों की नॉइज़लॅस मारों से लथपथ हैं कैसे-
मुलायम-मुलायम लाल-गुलाबी छींछड़े
फड़फड़ाते, हिलते-डुलते, तश्तरी की सीमा में
मोटे-पतले से पड़े!
षड्ज या गान्धार-
स्वर, आवाज है तो सिर्फ यही कि-
‘लजीज है, खाओ यार,
जल्दी क्या है, जरा आराम से; आज तो है रविवार!’
चली लम्बी-तीखी चोंच नम्बर एक-
ताबेदार राज्याधिकारी!
चली लम्बी-तीखी चोंच नम्बर दो-
मूँछमरोड़ व्यापारी!
चली लम्बी-तीखी चोंच नम्बर तीन-
मुक्कामार गलफुल्ला निष्काम सेवक नेता ध्वजधारी!
”पापा, प्लीज! देखने दो हमें चोंचों का यह खेल,
बड़ा मजा आ रहा है, अहा, चल रही हैं जैसे गुलेल!
बताओ न?-गिलबिला, गिलबिला-
तश्तरी में यह क्या है जो टूटता, जुड़ता, बिखरता और बनता?“
”कुछ नहीं राजा बेटा, यह तो है स्वतन्त्र भारत की जनता!“
1983