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चौथोॅ सर्ग / कैकसी / कनक लाल चौधरी 'कणीक'

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चौथोॅ सर्ग

हाथ पकड़ि केॅ खिचै विश्रवां कुटिया तरफें लावै
दश कदमोॅ के बाद कैकसीं मुनि सें हाथ छोड़ावै

मुनि जी कहै तोंहें मनवांछित, फल अभ्यिे चलि पावोॅ
रतिदानों केॅ लै हमरा सें काम के आग बुझावोॅ

कामाग्नि तोरोॅ एत्ते प्रबल रहै है नैं जानें पारलां
यै लेली हठधर्मी रस्ता भूल से हम्में पकड़लां

आवेॅ डूब मरै के हठ तों मन से जल्दी त्यागोॅ
हमरा संग कुटिया में घूसी रति पावै में लागोॅ।

मुनी वचन सुनि कैकसी बोलली, आबेॅ नैं विश्वास
कुटिया पहुँची पलटी जैभोॅ फेनू टुटतोॅ आस

यै लेली तों छोड़ोॅ मुनिवर त्यागेॅ देॅ है शरीर
बड़ अपमान तोरा सें पैलौं मान केॅ आपनो चीर

राह भरी मुनि करै खोसामद कैकसी रहि-रहि रूसै
ई रंङ मान मनौव्वल करतें दोनों कुटिया घूसै

लै रतिदान प्रशन्न कैकसी मनवांछित फल पाय
प्रात उठि केॅ मुनि आज्ञा लै अल्पकाल लेलि जाय

दादी सुकेशी माल्यवान केॅ सभटा बात बतावै
काका सुमाली सब वहिना से बहुत बधाई पावै

दिन भर रहली परिवारोॅ संग साँझ केॅ कुटिया अैली
मुनी सेवा में अर्पित तन करि निशि दिन खुशी में रहली

ई रंङ मुनी के सेवा करि-करि पुरलै आठ महीना
प्रसव काल नगीच जानि केॅ मुनि जी के छूटै पसीना

चिन्तित पति विश्रवा देखी, कैकसीं ई समझावै
प्रसव काल के लेलि वात जे हमरा समझ में आवै

जों पति तोरोॅ आज्ञां मिले तैॅ कुछ अनुचरि संग लाबौं
प्रसव काल में ओकरा सभसें समुचित सेवा पावौं

अल्पकाल धरि अनुचरि रहती शिशु जबतक पोकतावेॅ
पोकत होला बाद अुचरी जखनी चाहेॅ जावेॅ

कैकसी के है क्षुद्र मांग पर मुनिवर सहमत भेलै
तखनीं माल्यवान झाड़ी में तन नुकाय केॅ छेलै

मुनि सहमति के बात सुनी हौ सरपट भाग केॅ जाबै
घर के चारो बेटी केॅ वे संग-संग लै आबै

मुनीं जखनी प्रभु-ध्यान में छेलै चारो वहिन पहुँचली
अनुचरि बॅनी केॅ हौ चारो कुटिय में रहॅे लेॅ अैली

कैकसी चतुराई से मुनी जी अनुचरी बुझतें रहलै
है रंङ चारो वहिनां भी कैकसी रंग में रंगलै

वै राती में प्रसव वेदना सें कैकसी अकुलैली
जे दिन ओकरी चारो बहिनियाँ अनुचरी बनि-बनि अैली

राती के अन्तिम पहरोॅ में जैन्हैं जन्म शिशु भेलै
‘किहु-किहु’ के आवाज उठी केॅ चारो दिश छितरैलै

धरती तखनीं डोलेॅ लागलै नक्षत्रों टकरैलै
नभ सें सगरोॅ शोर उतरलै अैलै दशानन अैलै

ऋषि विश्रवा के कानों नें जबेॅ हौ शोर सुनलकै
चिन्ता आरो हर्ष सें मुनी जीं अद्भुत मुद्रा पैलकै

है की भेलै-है की भेलै मन शंका सें भरलै
कहीं कोनों अपसगुण नैं उपजेॅ यै चिन्तां डरि गेलै

फेनुं विधाता के मर्जी केॅ मुनी के स्वीकारलकै
दाय सें पूछी हाल कैकसीं शिशु संगें जानलकै

कुटिया के एक कोनां में ही सौरी घ्ज्ञर के लेखा
चारो बहिनें खींची देलकी कपड़-घोॅर के रेखा

छोॅ दिन के छठ्ठी तक चललै अनुचरी सें संवाद
चारो बहिन ढीठ होय फेनूं मुनी सें करै विबाद

बड़की अनुचरि मुनि सें बोलली सुनोॅ मुनि जी बात
हमरोॅ नाम तेॅ पुष्पोत्कटा छै संग काटभौं रात

कैन्हें की है तीनों अनुचरि शिशु माता संग रहती
सौरी घर में जग्घोॅ कम छै बांकी जग्घोॅ परती

मुनि जी सुनि केॅ चुप्प भेलै हौ मौन स्वीकृति बूझै
पुष्पोत्कटां सिंगार करी मुनि तेज भरै के सूझै

अर्ध रात्रि भरि सुतै लेॅ देलकै फेनू मुनी जगावै
कामाग्नि से त्रस्त बताय केॅ रतिदानोॅ फल पावै

पुष्पोत्कटा तेॅ पार उतरली बांकी बहनां रहली
छठ्ठी तालुक तीनों बहिनां यै क्रमें पार उतरली

बड़का ठो परिवार मुनी केॅ कुटिया में रहॅे लागलै
नारी सें भरलोॅ आश्रम में लोकलाज ठो भागलै

अनुचरि होय के भण्डा फुटलै असली बात निकललै
कैकसी के ई नखरा देखी मुनी केॅ विस्मय भेलै

माल्यवान सुमाली साथें कुटिया परकै सुकेशी
पैन्हें रहै कम आना-जाना आबेॅ होबै वेशी

कैकसी फेनू होय गर्भिनी कुम्भ करण जन्मावै
पुष्पोत्कटा कोख सें त्रिसरा यै धरती पर आवै

राका के कोखोॅ से खर दूषण दोनों ठो अैलै
भक्तिनी निकवा गर्भो सें त्रिजटा विभीषण भेलै

शेष एक अनला मालिन सें दू टा बेटी अैली
सुपर्नखा, कुंभीनसी के नामोॅ सें जानलोॅ गेली

है रंङ जबेॅ बढ़ेॅ लागलै विश्रवा मुनि परिवार
माल्यवानें-सुमालीं आबी करै कुटिया विस्तार