चौबीस / आह्वान / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'
ओ आँसू की बूँद नयन से ढलो नहीं तुम
तुम हिम की चट्टान सरीखे जड़े हुए हो
तुम हो ऐसी कील कि मन में गड़े हुए हो
उखड़ गई कि छा जायेगी नयनों में बरसात
सुख-दुख की अनुभूति छलक का कह देगी सब बात
द्वार उर खुल जायेगी
अश्रु मय तन हो जायेगी
अश्रु मय मन हो जायेगी
इस दुनिया की अनल ताप से द्रवीभूत हो गली नहीं तुम
ओ आँसू की बूँद नयन से ढालो नहीं तुम
कितनी बात कहोगे बहकर, और कहो क्या होगा, कह कर
तुम न जलन क्या सह पाती हो पलाकों के साये में रह कर
तुम न सहज जल बिन्दु हमारे उस के मोती के दाने
चुरा लिया था मई बचपन में माँ के स्नेह सरल खाने
मेरे बुरे दिनों की आहें
मेरे मानस का गंगा जल
बहो न तुम यों बनकर पागल
सारी जहां छ्ले-छलने दो किन्तु नयन से नहीं चलो तुम
ओ आँसू की बूँद नयन से ढालो नहीं तुम
कम से कम तब तलक की जब तक सेमा मुझे पुकार
लड़ने वालों के नयनों का शूल बनो मत प्यारे
वीरों का त्योहार जबकि रन आगे-आगे
माँग रहा है प्राण! वहाँ मत चलो यार तुम पीछे लागे
ओ मेरे जीवन की आशा
मूक बेदना की भाषा
सुख-दुख की अभिलाषा
यहाँ प्राण संगम का मेला आँसू मेरे ढलो नहीं तुम
ओ आँसू की बूँद नयन से ढलो नहीं तुम