छ: / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'
साँपों के डर से कहाँ भाग कर जाओगे! साँपों का जहर पचाने का अभ्यास करो।
जीवन के हर सीधे पथ में कुण्डली मार बैठा है
विष व्याल हवा में छोड़रहा, फन काढ़-काढ़ ऐंठा है
खबरदार! रुक जाओगे डंस लेगा, मर जाओगे
बढ़े चलो रौंदों साँपों को, मंजिल पा जाओगे
मंजिल तक गई वह राह कौन जिसमें है कण भर धूल नहीं!
किसका पथ सँवरा फूलों से, किस पथ में मिलता शूल नहीं!!
जीवन विष से तुम भाग कहाँ तक जाओगे
विष का प्याला पी जाने का अभ्यास करो
साँपों के डर...
माना कि सपने विखर गए, मीठे अरमाओं के
माना कि जलते दीप बुझे नभ के प्यासे परवानों के
फिर भी लौटे परवानों को देखा था कभी उदास नहीं
कितनों के दुनिया उजड़ी, पर तुम साथ कोई हताश नहीं
रे! निराश कब होती है डाली अपनी निधियाँ देकर
मस्ती में गाती झूम-झूम नन्ही-प्यारी कलियाँ खोकर
जीवन पथ में अंगार बिछे, लपटों से हृदय जुड़ाने का अभ्यास करो
साँपों के डर...