छंद 159 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
दुर्मिल सवैया
(मुग्धा प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)
पति-प्रीति के भारन जाती उनैं, मति स्वै दुख-भारन सालैं परी।
मुख-बात तैं होती मलीन सदाँ, सोई मूरति पौंन के पालैं परी॥
‘द्विजदेव’ अहो करतार! कछू, करतूति न रावरी आलैं परी।
वह नाहँक गोरी गुलाब-कली-सी मनोज के हाइ! हवालैं परी॥
भावार्थ: हे ब्रह्मा! आपके ये कृत्य अच्छे नहीं कि उस सुकुमारी नायिका पर, जो अनुक्षण पति की नवीन प्रीति के भार से दबी जाती (थी), अपार वियोग का भार लाद दिा एवं जो मूर्ति मुख की स्वाँस के लगने से कुम्हलाती है उसे दक्षिण पवन के झोंकों के सम्मुख कर दिया। प्रत्युत उस गुलाब की कली सी गोरी, (सुंदरी व गोरी अर्थात् पार्वती) को काम के हाथों में सौंप दिया। काम, जो शिव का बैरी है, वह गौरी (शिव-पत्नी) पर कब दया करेगा।