छंद 167 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
दुर्मिल सवैया
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)
जग देति दया करि ईस जोई, सोई कौंछ-पसारि गह्यौई परै।
‘द्विजदेव’ उराहनौं यामैं कहा, दुख आपनौं आपै सह्यौई परै॥
उनहूँ सौं कछूक नई न भई, मुख आए तैं बैन कह्यौई परै।
वह ऊधौ! सुधामई मूरति पैं, जन-जारिवौ स्यामैं लह्यौई परै॥
भावार्थ: हे उद्धवजी! ब्रह्मा, कृपा कर संसार में जिसे जो देता है, उसे आँचल पसारकर लेना ही पड़ता है, इसमें किसको उलाहना दिया जाए। जो दुःख अपने शरीरपर पड़ता है उसे सहना ही पड़ता है। परंतु एक बात जो मुँह तक आ चुकी है उसे अवश्य पाकर कहे बिना नहीं रहा जाता, वह यह है कि कृष्ण ने कोई नई बात नहीं की अर्थात् यह निष्ठुरता उनका प्रकृतिसिद्ध दोष ळै, उनका अमृतमय रूप का युवतियों को जलाना उचित ही है। इसमें काकुव्यंग्य है अर्थात् यह उचित नहीं; क्योंकि अमृत का धर्म प्राण-दान देना है। किंतु ईश्वर की देन को वे क्या करें, यदि उनके सुधामय शरीर को जलाने का विपरीत धर्म ब्रह्या ने दिया तो वह उसे कैसे न लेते। वह चाहे उचित हो या अनुचित। क्योंकि-
”को कहि सकै बड़ेन सौं, लखैं बड़ीऐ भूल।
दीन्हे दई गुलाब की, इन डारिन वे फूल॥“