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छंद 195 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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अरसात सवैया
(फाग-वर्णन अथवा खंडिता नायिका का उक्ति-कथन)

तन सूधे सुभाइ सिरीष सौ कौंमल, मींजत मंद भयौई चँहैं।
अति लाल गुलाल घटा मैं मलीन, सो आनन-चंद भयौई चँहैं॥
‘द्विजदेव’ जू ऊक-औ-बीक हिए मैं, गुपाल के फंद भयौई चँहैं।
दृग बीर! अबीर की चाँदनी मैं, अरबिंद लौं मंद भयौई चँहैं॥

भावार्थ: कोई सखी फाग खेलते समय राधिकाजी को खेल की उद्दंडता से घबराई देख अंग-प्रत्यंग की विकलता ‘काव्यलिंग-अलंकार’ की रीति से कहती है कि राधाजी के अंग शिरीष (सिरसा-पुष्प) पुष्प के समान स्वभावतः कोमल हैं, अतः विशेष स्पर्श से मुरझाना ही चाहे और लाल गुलाल की घटा से ‘चंद्रमुख’ मंद हुआ ही चाहे। क्योंकि अभ्राच्छादित (बादल से घिरा हुआ) चंद्रमा मलीन होता ही है एवं गोपाल (अहीर, श्रीकृष्णचंद्र) के पाले पड़ने से हृदय में घबराहट का होना उचित ही है; क्योंकि परम सुकुमारी स्त्रियों के, गो चरानेवाले अनभिज्ञ अहीरों के हाथ में पड़ने से चित्त का उद्विग्न होना सहज सुलभ है तथा आँखों का, जिनकी उपमा कमल से दी जाती है, अबीर (अभ्रक चूर्ण अर्थात् बुक्का) के उड़ने से जिसकी उपमा चाँदनी से दी जाती है, अर्धोन्मीलित होना उचित ही है, क्योंकि चाँदनी के प्रकाश में कमल स्वभावतः संपुटित हो जाते हैं।