छंद 215 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(मध्यमा दूती द्वारा विरह-निवेदन-वर्णन)
देखि गंा-बाहक चले से बन-बीथिन मैं, तन-मन त्यागि कैं चलीऐ हठि लाज हैं।
‘द्विजदेव’ चाहि तैसे फूलन-मरंद झरि, आँखिन तैं बुंद चले आँसुन के ब्याज हैं॥
एते पैं उँमगि ब्रजबाल अंग-अंगन तैं, प्रान चलिवे कौं चहूँ साजत समाज हैं।
ऐसी चलाचल मैं न स्याम जू चले तौ हम, बीस-बिसै जानी कै रसिक-सिरताज हैं॥
भावार्थ: प्राणप्यारे को विदेश जाते देख प्रौढ़ा प्रवत्स्यत्पतिका वचन-रचना से उत्तेजना देकर यात्रा-निवारण करने के अर्थ नायक को सुनाकर सखी से कहती है, देखो, कैसा सुहावना समय है कि सुगंधित वायु वन-बीथियों से चल रही है, जिसे देख तन-मन का परित्याग कर हठात् स्त्रियों की लज्जा चली और पुष्पों से मकरंद गिरते देख नेत्रों से अश्रुधारा चली। इन सबमें विशेष बात तो यह है कि व्रजबालाओं के प्रत्यंगों से प्राण भी चलने को उद्यत हो रहे हैं तो ऐसी चलाचली की कसाकसी में यदि ‘श्याम सुजान’ विदेश न चले तो हम सब उनकी धीरता की सराहना कर कहेंगी कि वे अवश्य ‘रसिक-शिरोमणि’ हैं।