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छंद 223 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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मत्तगयंद सवैया
(अन्योक्ति-वर्णन)

ह्वाँ उन केसी हत्यौ इन ह्याँईं सुकेसिन मारिकैं कीरति लीन्हीं।
दोऊ बिकास-भरे ‘द्विजदेव’ लखी करतूति दुहून की कीन्हीं॥
नाँहक ही बनि बैठे रसाल, सो काल की रीति परै नहिँ चीन्हीं।
दूखन दीजै कहा बिधि कौं, जु पैं रूखन के कर साहिबी दीन्हीं॥

भावार्थ: हे सखी! उस विधाता को कहाँ तक लांछन दें जिसने ऐसे रूखों (वृक्षों व रुक्ष प्रकृतिवालों) के हाथ में प्रभुताई दी और व्यर्थ दोनों (कृष्ण और आम) मनमाने अपने को रसाल (आम व रसिक) बन बैठे हैं अर्थात् रसाल रसीले को कहते हैं। अतः ये नाहक ही रसाल बन बैठे। काल बड़ा प्रबल है, इसकी रीति कुछ समझ में नहीं आती, क्योंकि मैं इन दोनों के कृत्य को देख चुकी। उन्होंने (कृष्ण ने) केशी नामक दैत्य को व्रज में मारा और इस (आम्र) ने अनेक सुकेसियों (सुंदर केशवाली स्त्रियों) को (विरह-संताप दे) मारा तथा दोनों अकीर्ति के भागी हुए, तिसपर भी दोनों विकासता (कुसुमिता व प्रसन्नता) से भरे हैं।