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छंद 225 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज

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दुर्मिल सवैया
(परस्पर प्रेम दशा-वर्णन)

कछु वे उत हीं तैं अबोल खिनै-खिन, ए इत जातीं अडोल भई।
सुख के बदलैं दुख-जाल बिसाहे, तऊ अति हौंहिँ उछाह मई॥
‘द्विजदेव’ इन्हैं वह कौंन नफा धौं मनोज-महाजन दैहैं दई।
जब प्रेम के पैंड़े मैं पैंठत हीं, गति राधिका-स्याम नैं ऐसी लई॥

भावार्थ: हे सखी! प्रेम के हाट में पग धरते ही राधिका-श्याम की यह गति हुई। मैं नहीं जानती कि कामधनी (साहूकार) इन्हें इस व्यापार में क्या लाभ देगा? क्योंकि उधर वे राधिका को देखकर ‘सात्त्विक-अनुभाव’ के कारण (श्रीकृष्ण भगवान्) वाचा-शक्तिहीन होते जाते हैं और इधर ये कृष्ण-दर्शन से स्तंभित हो रही हैं। यह कैसी अनोखी बात है कि ये सुख से बदलकर दुःख मोल लेते हैं, तथापि दोनों व्यक्ति उत्साह से भरे हैं।