छंद 235 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मनहरन घनाक्षरी
(प्रोषितपतिका नायिका-वर्णन)
आयौएक प्रथमहिँ परिभृत-भाव करि, ताकौ गुन तोहिँ जसुधाहू सौं सुनाई हौं।
दूजैं धायौ कूर कुटिल अकूर बनि, ताकौ जस जुगहूँ न गावत सिराइ हौं॥
अब यह आयौ ऊधौ, सूधौ-सौ दिखात अलि! काल्हि ही तौ याहू कौ कुसंग-फल पाइ हौं।
होइ जो सो होइ कहि कोटि समुझावै कोइ, माथुरन आली! अब काहू ना पत्याइ हौं॥
भावार्थ हे सखी! अब चाहे मुझे कोई कितना ही समझावे परंतु मथुरापुरी के निवासियों का विश्वास अब मैं कदापि न करूँगी। इससे कि प्रथम तो परभृत भाव धारण कर ‘वसुदेव’ आए जिनके गुण यशोदा से मैं भलीभाँति सुनवा देती हूँ। दूसरे कुटिल ‘अक्रूर’ चढ़ आए जिनके गुणानुवाद युगपर्यंत गाने से भी अंत न होंगे। अब बड़े सूधे से तीसरे ‘ऊधौ’ जी पधारे हैं, जिनके सत्संग का फल भी कल शीघ्र ही मिला चाहता है।