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छंद 268 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
Kavita Kosh से
दोहा
(कुच, रोमावली और उदर का अप्रत्यक्ष रूप से वर्णन)
दीन्हे जानि बराइ बुधि, कछुक आगिले गात।
चढ़ि-पहार, असि-धार-पथ, को भौंरहिँ तरि जात॥
भावार्थ: इसके पश्चात् बुद्धिस्थिता भगवती ने और अंगों के विषय में कथोपकथन करना उचित न जानकर केवल इतना ही कहके छोड़ दिया कि हे कवि? तुम इतना ही समझो कि शैल-शिखर पर चढ़के खंगधारा के पथ से हो महान् सरिता के आवर्त (भँवर) को कौन तैर सकता है। यदि विचार किया जाए तो वक्षःस्थल से नाभिपर्यंत सब अवयवों का वर्णन कवि ने रूपकातिशयोक्ति अलंकार के ब्याज से गुप्तरूप से कर दिया।