छंद 271 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मत्तगयंद सवैया
(तन-द्युति-वर्णन)
है रजनी-रज मैं रुचि केती, कहा रुचि रोचन रंक रसाल मैं।
त्यौं करहाट मैं, केसर मैं, ‘द्विजदेव’ न है दुति दामिनी-जाल मैं॥
चंपक मैं रुचि रंचकऊ नहिँ, केतकि है रुचि केतकी-माल मैं।
ती-तन कौं तन कौ लखिऐ, तौ कहा दुति कुंदन, चंद, मसाल मैं॥
भावार्थ: भगवती ने पुनः कहा कि हे कवि द्विजदेव! नख से शिख पर्यंत मैं तुम्हें समझा चुकी, अब संपूर्ण शरीर की कांति के जितने उपमान हैं उनको भी स्पष्ट रूप से कह देना समीचीन होगा। हरिद्रा के चूर्ण में वह रोचकता कहाँ? वह तो रुक्ष है और बेचारे पके आम्रफल में भी (उस जैसी) रोचकता नहीं, क्योंकि उसपर मक्खी भिनभिनाया करती हैं, सुवर्ण में कठोरता है, केसर में चमक नहीं, दामिनी में वह ज्योति कहाँ? क्योंकि एक तो वह अग्नि पुंज है जिसके स्पर्श से भस्म हो जाना होता है, दूसरे वह क्षणप्रभा है। चंपक में भी कुछ शोभा नहीं, क्योंकि उसमें परम तत्त्व रस के न होने से तथा कर्कश गंध के होने से भ्रमर-समूह ने पहले ही से (उसका) निरादर किया। केतकी-पुष्प में मनोहरता ही कितनी, क्योंकि वह कंटकयुक्त है और गंधहीन कुंदन की तो बात ही क्या? चंद्रमा में कलंक के कारण स्वच्छता नहीं, मसाल न्यूनता में उसकी संतप्तता और दुर्गंधि दो कारण हैं, अतः सर्वगुणसंपन्न कोई भी उपमा शरीर कांति की नहीं हो सकती।