छंद 31 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
किरीट सवैया
मंद दुचंद भए बुध-बैनहिँ, भाँखि सकैं कबि हूँ कबितान न।
आइ लजाइ चलेई गए गुरु, आपनौं सौ लिऐं आपनौं आनन॥
कौंन प्रभा करतार! बखानिहैं, मंगल-खाँनि बिलोकि कैं कानन।
सीस हजार हजार करैं, पैं न पार लहैंगे हजार जुबानन॥
भावार्थ: यदि कहो कि और-ही-और कहकर क्यों वृथा वाक्वाद बढ़ाया तो यह समझना चाहिए कि मेरी क्या गति है; बहुत से बड़े-बड़े सामर्थ्यवान महान् पुरुषों की भी यही दशा हुई। बुध (पंडितजन) तो इसकी शोभा को देखकर ही मुग्ध हो रहे थे और जब इस शोभा के वर्णन की उन्होंने इच्छा की तो उनके वचन ही में द्विगुणित मंदता आ गई, फिर भला वे क्या कह सकते थे तथा कवि (शुक्राचार्य) भी अपनी वाक्चातुरी से विशेष नहीं कह सकते, इसी प्रकार देवगुरु (बृहस्पति) इसके वर्णन की इच्छा से आए किंतु बुद्धि स्फुरित न होती देख अपना सा मुँह लगाए (लिये) सुरलोक को पलट पधारे। हे भगवन्! जब शुक्र, बृहस्पति इत्यादि की यह दशा हुई तो इस मंगलमय वन की कांति का दूसरा कौन वर्णन कर सकता है, यदि सहस्रफण शेषनाग की तरफ ध्यान जाए तो मेरी जान वे भी, चाहे सहस्रों उद्योग करें पर सहस्र जिह्वाओं से इसकी सुषमा के वर्णन-समुद्र का कदापि पार न पा सकेंगे।