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छंद 40 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
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रोला
(संक्षेप रूप से नायिका-भेद-वर्णन)
बन, गिरि-उपबन जाइ, कबहुँ-भाँतिन खेलहिँ।
कबहुँक हरि-सँग पाइ, मोहि आनँद-हिय-मेलहिँ॥
सखिन सुनाइ-सुनाइ कहैं, कहुँ यह सुख राधा।
कबुँक आपुस माँहिँ, सखी! कहि मैंटहिँ बाधा॥
भावार्थ: कभी तो भगवती श्रीराधिकाजी पर्वत, वन और उपवन में ‘अभिसार’ करके अनेक क्रीड़ाएँ करती हैं, कभी कृष्ण भगवान् का संग पाकर आनंद से मग्न होती है, कभी सखियों को उक्त रहस्य-सुख बारंबार सुनातीं हैं और कभी सखियाँ ही आपस में इस विनोद-वार्त्ता की चर्चा चलाकर आनंद पाती हैं।