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छंद 59 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
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दोहा
(कवि संकल्प-विकल्प-वर्णन)
अति मींठी मति के बसैं, सतसंगी जग-माँह।
लखि उदारता ग्रंथ की, कैसैं करिहैं चाँह॥
भावार्थ: इसकी उदारता देख सर्वसाधारण कैसे चाहना करेंगे, क्योंकि अत्यंत उत्कृष्ट बुद्धिवालों को यह ‘लघु कविता’ कैसे जँचेगी और अल्पज्ञ समझ ही क्या सकेंगे।