छंद 71 / शृंगारलतिकासौरभ / द्विज
मत्तगयंद सवैया
(प्रोषितपतिका अथवा गर्विता नायिका-वर्णन)
जा दिन तैं सुधि आई हिऐं, नित बाढ़तैं देखी उछाह की सोती।
नाह दियौ जिनसी हमैं सौतिन, दीनीं दया करि प्रीति-अगोती॥
या जग मैं बिधि बाहुबली, तिय जेती रचीं मति हूँ रचीं ओती।
होत हू ह्वै है कहूँ सजनी! पिय-प्यारी के अंतर मान-मनोती॥
भावार्थ: मेरे तो जिस दिन से हृदय में नायक का स्मरण हुआ था उस दिन से नित्यप्रति उत्साह का स्रोत बढ़ता ही गया, लेकिन जिसने ये सौतें दीं उसीने पेशगी प्रीति भी दी, इस संसार में ब्रह्मा बड़ा बलवान है। देखो! उसने जितने प्रकार की स्त्रियों की रचना की उतने ही प्रकार की बुद्धि भी उन सभी को दी। हे सजनी! कोई जगह ऐसी भी होगी जहाँ प्रिया-प्रियतम की मान-मनौती होती हो? अर्थात् प्रिया मानवती होती हों और प्रियतम मनाते हों। इससे विप्रलंभ शृंगार हुआ।