भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छटा आदमी / शाज़ तमकनत
Kavita Kosh से
ये मिरा शहर है
ख़ूब-सूरत हसीं
चांदनी का नगर धूप की सरज़मीं
शहर के रोज़ ओ शब मेरी आँखें
जिस तरह पुतलियाँ और सफ़ेदी
मैं इन आँखों से सब मंज़र-ए-रंग-ओ-बू देखता हूँ
रास्ता रास्ता कू-ब-कू देखता हूँ
मैं कि शब-गर्द शाइर
चाँद से बातें करते हुए चल पड़ा था
एक बस्ती मिली
मल्गज्जे और सियह झोंपड़े चार सू
झोंपड़े जिन की शम्ओं में साँसें न थीं
ज़र्द बीमार उजाले
राख और गंदगी
इक उफ़ूनत का अम्बार
ज़िंदगी जैसे शरमा रही थी
मिरी जानिब कहीं दूर से एक साया बढ़ा
मैंने पूछा कि तुम कौन हो
वो ये कहने लगा
मैं की ज़ुल्मत हूँ तुम रौशनी दो मुझे
मैं जिहालत हूँ तुम आगही दो मुझे
मैं निजासत हूँ पाकीज़गी दो मुझे
लो सुना और देखा मुझे
मैं छटा आदमी हूँ बचा लो मुझे
मैं छटा आदमी हूँ बचा लो मुझे