Last modified on 17 मई 2012, at 21:37

छह दिसम्बर, 1992 / रामकृष्‍ण पांडेय

आकाश में
उस दिन भी उड़ा था
एक परिन्दा
किन्तु नीरव

उस दिन बहुत शोर था
सड़कों पर
और गलियों में
किन्तु सन्नाटा छाया था
आकाश में

सब कुछ
एक सन्नाटे में
हो रहा था
दिशा-दिशा से
उन्मद बढ़ा आ रहा था
रामनामी जुलूस
पर कोई आवाज़ नहीं हो रही थी

हाथ चला रहे थे
हथौड़े और गैतियाँ
पर कोई आवाज़ नहीं हो रही थी

उद्धत लोग
चीख़ते-चिल्लाते लोग
नेस्तानाबूद कर रहे थे
अपनी परम्परा, अपना इतिहास
पर कोई आवाज़ नहीं हो रही थी

अपनी ही जड़ों पर
आघात पहुँचा कर
ठहाके लगा रहे थे लोग
एक-दूसरे को
बधाइयाँ दे रहे थे
पर कोई आवाज़ नहीं हो रही थी

सब कुछ
एक सन्नाटे में
हो रहा था
और सब कुछ होने के बाद भी
सन्नाटा ही छाया रहा