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छींटा ही होगा / हरीश भादानी

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पीट रहा मन
                    बंद किवाड़े

देखी ही होगी आंखों ने
यहीं-यहीं ड्योढ़ी खुल-खुलती
प्रश्नातुर ठहरी आहट से
बतियायी होगी सुगबुगती
                    बिछा बिछाये होंगे आखर
फिर क्यों झर-झर झरे स्वरों ने
सन्नाटों के भरम उघाड़े
                    पीट रहा मन.....

समझ लिया होगा पांखों ने
आसमान ही इस आंगन को
बरस दिया होगा आंखों ने
बरसों कड़वाये सावन को
                    छींटा ही होगा दुखता कुछ
फिर क्या हाथों से झिटकाकर
रंग हुआ दागीना झाड़े
                    पीट रहा मन.....

प्यास जनम की बोली होगी
आंचल है तो फिर दुधवाये
ठुनकी बैठ गई होगी जिद
अंगुली है तो थमा चलाये
                    चौक तलाश उतरली होगी
फिर क्यों अपनी सी संज्ञा ने
सर्वनाम हो जड़े किवाड़े

पीट रहा मन
                    बंद किवाड़े