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छुन्नू खां / केशव तिवारी
Kavita Kosh से
छुन्नू खां जी ये आप
फेर रहे हैं सारंगी पर गज
और महसूस हो रहा है
जैसे कोई माँ अपने बच्चे का
सिर सहलाते हुए लोरियाँ सुना रही है
द्रुत में तो लगता है जैसे इस
रस अँधेरी रात में भी बस तुलू-तुलू
होने को है सूरज और
विलम्ब में मन उदास घाटियों की
अतल गहराईयों में खो जाता है |
क्या शान है आपके गट्टे के तान की
कितने ही नृत्य प्रवीणों का
कितनी ही बार लिया होगा
इसने इम्तिहान
तरब के सुर तो बेचैन रहते हैं
आप की उँगलियों के
जब आप आँख बंद कर उतरते हैं
सुरों की झील में तो
चेहरे पर तिरने लगते हैं
रतजगों के अक्स
यह फटा कुर्ता थकी काया
बीड़ी-बीड़ी को मोहताज
छुन्नू खां जी क्या आपके बाद भी
ऐसे ही बजती रहेगी
आपकी सारंगी |