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छोटी-छोटी घातें / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
छोटी-छोटी घातें
औ बढ़-चढ़ कर बातें
देख लिया सबका
रेशा-रेशा दरका
सपने बुनने में बड़ा डर लगे
हममें हैं जो खामियाँ
पहले उन्हें तो कहें
वातावरण देख लें
तब तो हवा में बहें
यह डगर दुरंगी है
पग-पग पर तंगी है
धँस जाँय न दलदल में
फँस जाँय न जंगल में
आगे बढ़ने में
बड़ा डर लगे
होते हैं घर से शुरू
आतंक के रास्ते
नवव्याहता जल गयी
चंद सामान के वास्ते
यह घूस-कमीशन की
कोठी किसके धन की
खुलेगी जब सच्चाई
क्या होगा तब फिर भाई
पर्दा उठने में बड़ा डर लगे