छोटी मोटी मरीच के गाछ / अंगिका लोकगीत
इस गीत में वर्णित पेड़, जो कन्या का प्रतीक है, फूल-फूल से झुक गया, उसका यौवन निखर आया। उसने अपने साज-शृंगार के लिए विभिन्न चीजों की माँग की। बेटी द्वारा इन चीजों की माँग करने पर उसके पति को सुनाकर ही, उसकी माँ ने, उसके पति की निर्धनता, बेवकूफी और अरसिकता की ओर लक्ष्य किया। पति इन बातों को सुनकर तिलमिला गया तथा उसने इन चीजों को काफी परिश्रम और पैसे खर्च करके प्राप्त किया। सारी चीजें अपनी प्यारी पत्नी को देते हुए उसने कहा- ‘इन चीजों को लो, लेकिन अब कभी मुझे इस तरह अपमानित करके निर्बुद्धि मत कहना।’ पत्नी, जिसे अब इतनी चीजें प्राप्त हो चुकी हैं, पति के सामने अपने को निर्दोष साबित करने के लिए सफाई देती हुई कहती है- ‘मैंने ऐसा कहाँ कहा? वह तो मेरी माँ ने कहा था।’ पत्नी की उक्ति बहुत ही सरल और स्वाभाविक है।
छोटी मोटी मरीच के गाछ, फुलि फलि झबरि<ref>फूल-फल से लद गया</ref> गेलै डार<ref>डाल</ref>।
ओहि तर उतरल साहु सौदागर, ओहि ले अउरी<ref>रूठना; रोना; कोप करना</ref> लेले गे कयिाय सुहबी॥1॥
हमें लेइबो गे मैयो कामी<ref>एक प्रकार का सिंदूर</ref> सेनूर, संखा चूड़ी राहरी<ref>लहरा पटोर; एक प्रकार का रेशमी कपड़ा</ref> पटोर।
निरधनिया कोखि जनम भेलो, छोट बुधिया ठिहा<ref>के यहाँ’; वहाँ पर</ref> बिहा<ref>विवाह</ref>।
कौने देइतौ गे बेटी सँखा चूड़ी॥2॥
एतना बचन जब सुनलै दुलहा बाबू, चलि भेलै कवन पुर।
सेनुरा के गोनिया<ref>थैला</ref> चढ़ि बैठले रे दुलहा, मोल करै ले कामी सेनूर, राहरी पटोर॥3॥
लाखो में कामी सेनुर, लाखो में राहरी पटोर।
किनिये बेचिये दुलहा लौटल, ठाढ़ो भेला ससुरो दुआर।
कहाँ गेली किय भेली गे कनियाय सुहबी, पहिरऽ सुहबी कामी सेनूर, राहरी पटोर॥4॥
पिन्हिय ओढ़ये गे सुहबी खाढ़ी भेली, अब जनि बोलिहो निरबुधिया।
हम नहिं बोललाँ हे परभु निरबुधिया, बोलली हमरी माय॥5॥