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जंगल/ सजीव सारथी
Kavita Kosh से
यह जंगल मेरा है,
मगर मैं खुद इसके,
हर चप्पे से नहीं हूँ वाकिफ,
कई अँधेरे घने कोने हैं,
जो कभी नहीं देखे,
मैं डरा डरा रहता हूँ,
अचानक पैरों से लिपटने वाली बेलों से,
गहरे दलदलों से,
मुझे डर लगता है,
बर्बर और जहरीले जानवरों से,
जो मेरे भोले और कमजोर जानवरों को,
निगल जाते है
मैं तलाश में भटकता हूँ,
इस जंगल के बाहर फैली शुआओं की,
मुझे यकीं है कि एक दिन,
ये सारे बादल छंट जायेंगें,
मेरे सूरज की किरण,
मेरे जंगल में उतरेगी,
और मैं उसकी रोशनी में,
चप्पे चप्पे की महक ले लूँगा,
फिर मुझे दलदलों से,
पैरों से लिपटी बेलों से,
डर नहीं लगेगा
उस दिन –
ये जगल सचमुच में मेरा होगा,
मेरा अपना