भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जंगल में आग / सुभाष काक
Kavita Kosh से
जंगल के बीच
लहराते वृक्षों को देख
आभास हुआ
हम ही
वह बहती समीर थे।
हम चुप रहे
जब घुडसवार वहाँ पहुँचे
आग लगाने,
एक बस्ती बसाने।
हृदय स्तब्ध था,
क्योंकि हृदय रहस्यपात्र है
इस की भाषा नहीं।
और अरण्य ग्राम के सामने
हटता है।
पक्षी और पतंगें
आग के तूफ़ान में
वृक्षों के तांडवीय नृत्य
में झूल रहे थे,
आहुति बनकर।