भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जग कहता है मैं जीत गया / प्रमोद तिवारी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर रात बितायी
उत्सव में
दिन सोते-सोते
बीत गया
सपनों को हारे बैठा हूँ
जग कहता है
मैं जीत गया

जब दद उठा
तब स्वर फूटा
जब प्रीत जगी
दरपन टूटा
टूटे दरपन पर
गीत रचा
जब गीत रचा
तो यश लूटा
यश की नगरी के
वैभव में
यश ढोते-ढोते
बीत गया
पहचान नकारे बैठा हूं
जग कहता है
मैं जीत गया

दुनिया के दर्द लगे अपने
शब्दों से फूल लगे झरने
प्यासों ने बांहें फैला दीं
नदिया चल दी
पानी भरने
इस तरह रहा
मैं जीवन भर
जल होते-होते
बीत गया
अब प्यास
किनारे बैठा हूं
जग कहता है
मैं जीत गया