जग यूँ दीख रहा / संतोष कुमार सिंह
मन की आँखों से देखा तो जग यूँ दीख रहा।
सरेआम कलियों की इज्जत, भँवरे लूट रहे।
अपराधी भेड़िए जेल से, सब ही छूट रहे।।
कान बन्द कर न्यायी बैठा, दुःखिया चीख रहा।
मन की आँखों से देखा तो जग यूँ दीख रहा।
क्रूर बाज की कुटिल कामना चिड़िया भाँप रही।
दूशासन के हाथ बढ़े हैं लज्जा काँप रही।।
रूप मुखौटों के अन्दर से, असली दीख रहा।
मन की आँखों से देखा तो जग यूँ दीख रहा।
बहू सुबह से पति के सम्मुख, चुगली बाँच रही।
बेवश माँ कोने में गुमसुम, इज्जत ढाँक रही।।
मात-पिता से नफरत करना बेटा सीख रहा।
मन की आँखों से देखा तो जग यूँ दीख रहा।
महल-गाड़ियाँ सब आ जायें, अब ये जीत गये।
सोच-सोच ये मेहनतकश के जीवन बीत गये।।
सत्य पकड़ कर सिर बैठा है, झूठा जीत रहा।
मन की आँखों से देखा तो जग यूँ दीख रहा।
खुद ही तन के वसन खुटी कुछ टाँग रही नारी।
फसल फिरौती रँगदारी की, फूल रही भारी।।
स्वार्थ लवादा ओढ़ घूमते, कोई न मीत रहा।
मन की आँखों से देखा तो जग यूँ दीख रहा।