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जग रो रूप-सरूप / कुंदन माली
Kavita Kosh से
किण विध भागी बस्ती आखी
किण विध भाग्या लोग
किण विध छूटी जीवण छाया
किण विध लाग्या रोग ?
किण विध छूटी चिलम-तमाखू
किण विध छूटा हेत
किण विध गाया राग तमूरा
किण विध बांझड़ खेत ?
किण विध छूटी आवण-जावण
किण विध मेल़मिलाप
किण विध पसरी मोटी बुद्धी
किण विध लागी छाप ?
किण विध पाछै चाली दुनिया
किण विध लालच पाप
किण विध खुद नै निरखी दुनिया
किण विध दुखसंताप ?
किण विध ऊभा दूरा-दूरा
किण विध रूंख बबूल
किण विध टणाका उणरा ठसका
खुद नै बैठ्या भूल ?
किण विध मुस्किल हुओ पीवणो
किण विध मुस्किल इमरतदान
किण विध मुस्किल हुयो सीवणो
किण विध फाट्यो जीवण-थान ?